रविवार, 2 दिसंबर 2012

YAADEN (65) यादें (६५)

 मेरे पिताजी को साधू-संतों और राहगीरों से लगाव था। रायसिंह नगर के रास्ते में कोई पानी की व्यवस्था नहीं थी; साथ में ही लेकर चलना पड़ता था। सुनारों वाली ढाणी 26NP और 11TK दोनों डिग्गियां मेरे होश में ही बनी थीं। विजय नगर वाली सड़क तो 1970 में बनी। पैदल या ऊँठ से लगभग 2 घन्टे का रास्ता था। पिताजी डब्बा और डोरी डिग्गियों पर बांधते ही रहते थे; क्योंकि हफ्ते दस दिन में डिब्बा-डोरी गायब हो जाते थे। शायद पिताजी के मन पर दादाजी के प्यासा हालत में मरने का गहरा सदमा था। 
 एक दिन पिताजी बाहर गए थे; और माँ शायद पानी लेने डिग्गी या नहर पर गई थी। मैं घर के बड़े कमरे में झाड़ू निकलने लगा। दीवारों के दक्षिण-पश्चिम कोने में गेहूं की आठ बोरियां एक के ऊपर एक थीं। उनके नीचे से झाड़ू लगते ही , आठों बोरियां मेरे ऊपर गिर गई। गनीमत ये कि,  कोठरी नुमा गुफा बन गई; और उसमे  उकडूं होकर; मैं अन्दर से आवाजें लगाने लगा। माँ आ गई, उन्हें मेरी आवाज़ तो सुन रही थी, पर पता नहीं चल रहा था की, किधर से आ रही है। गिरी हुई बोरियां देखकर माज़रा समझ आया; तो हिम्मत करके उन्होंने एक बोरी का कोना खींचा; मैं झट से निकल आया। 
शाम को वाकया सुन कर पिताजी काफी सहम गए थे।
 गाँव में आने वाले साधू-महात्माओं या राहगीरों की पिताजी कद्र करते थे। मेरे 25NP पढने के दौरान गाँव में एक भगवाधारी भगत जी अक्सर आते थे; वे बलराम गोदारा के घर ठहरते थे; गर्मियों में हमारे घर के खुले आँगन में और सर्दियों में हमारे 30'X12' के कमरे में 2-3 घंटे एकतारा पर भजन कीर्तन होता। उनका गया राजस्थानी भजन करमा जाटनी (अपने पिता की अनुपस्थिति में भोली-भाली करमां द्वारा श्री कृष्ण जी को भोग के लिए मनुहार करना) हम सबको बहुत पसंद था-
थाल भर ल्याई खीचड़ो; ऊपर  घी  की  बाटकी  !
जीमों म्हारा श्याम धणीजी, म्हे हाँ बेटी जाट की !! 

जयहिंद جیہینڈ  ਜੈਹਿੰਦ 
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