बुधवार, 26 फ़रवरी 2020

तांगा

घोड़ा पशौरी मेरा,
तांगा लहौरी मेरा।
बैठो मियांजी बैठो लाला।।
 १९६३ में रफी साहब की आवाज़ में यह गाना खूब गूंजता था।
१९४७ में कश्मीर से उजड़ने के किस्सों में माता-पिता और रिश्तेदारों की ज़बानों से घोड़ी तांगे का ज़िक्र अक्सर सुना है। १९६८ में दिल्ली रेलवे स्टेशन, किशनगंज, सदर बाजार व ईदगाह मार्ग पर तांगे से सफर किया है। १९७० में देहरादून के नगरीय परिवहन में तांगे ही मुख्य थे। १९७५ में जम्मू के बक्शीनगर, रेलवे स्टेशन, गांधी नगर, वेयर हाउस, सतवारी, डिगयाना, गंग्याल, में तांगा आम सवारी थी। १९८२ में बीकानेर रेलवे स्टेशन, लालगढ़, कोटगेट, जूनागढ़ व गंगाशहर में नियमित तांगे चलते थे। २००४ में जोधपुर पावटा के आसपास इक्का दुक्का तांगे चलते थे। खशी हुई कि पावटा चौराहे पर आज २०२० में भी तांगा मौजूद है।
मशीनीकरण ने साइकिल, रिक्शा, तांगा, ऊंटगाड़ी, बैलगाड़ी के साथ-साथ पर्यावरण, पारम्परिक आजीविका, सांस्कृतिक हुनर, प्रकृति और समय के धैर्य को भी लील लिया है।
 नट की रस्सी और बांस, मदारी की डुगडुगी और बन्दर, सपेरे की बीन और सांप, भोपे की सारंगी, भालू का नाच, चंग की थाप।
एक दौर था कि कान में भनक पड़ते ही बच्चे, बड़े और बूढ़े खिंचे चले आते थे। मोबाइल, टेलीविजन, ने सबको अलग-अलग कमरों में कैद करके कूप-मण्डूक बना दिया है।
आवश्यकता है, सनातन संस्कृति, परम्परा और प्राकृति को अक्षुण्ण रखने की।
आवश्यकता है, सनातन संस्कृति, परम्परा और प्राकृति को अक्षुण्ण रखने की।