
न मुंह छुपा के जियो; और न सर झुका के जियो। نہ منہ چھپا کے جیو، اور نہ سر جھکا کے جیو
ग़मों का दौर भी आये तो, मुस्करा के जियो।। ؛ گموں کا دور بھی اے تو، مسکرا کے جیو
ग़मों का दौर भी आये तो, मुस्करा के जियो।। ؛ گموں کا دور بھی اے تو، مسکرا کے جیو
खूब बजाते थे।
फरवरी 1970 में मैं जम्मू की यात्रा से लौटा; और अप्रैल/ मई में आठवीं के इम्तिहान امتحاں होने थे। प्रेम मंडा, कृष्ण मंडा, नरेंद्र बिश्नोई, साहबराम और मेरे बीच होड़ थी। मेरे छोटे मामा सुभाष चन्द्र जी (16.04.2011को विकासनगर में देहांत) की शादी भी अप्रैल में होनी थी। मेरे गुरुजन का विचार था की, मैं शादी में न जाऊं। माँ-पिताजी और मेरी इच्छा जाने की थी। बारात डोईवाला से ऋषिकेश गई थी। ये मेरी पहली ऋषिकेश यात्रा थी; पहाड़ो से उतरती हुई गंगाजी में नहाने का रोमाँच अलग तरह का ही था।
शादी में जाने की वजह से आठवीं की विदाई PARTY और GROUP-फोटो से मैं महरूम محروم हो गया था। आठवीं जमात ضمات मैंने प्रथम स्थान 1204/1600 से उत्तीर्ण की। इस तरह 25NP में 3 साल का सुहाना सफ़र पूरा करके, मैं वापस देहरादून को मुड़ गया।
जयहिंद جیہینڈ ਜੈਹਿੰਦ
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