सोमवार, 31 अक्तूबर 2011

YAADEN (7) यादें (७)

मेरी दादी मोहतरमा बस्सी देवी, सख्त मिज़ाज, मज़हब-परस्त, मगर नेक दिल  घरेलु  औरत थीं*  हमारे कारोबार व घोड़ी-ताँगा हांकने वाले मुस्लमान कारिंदे थे*  सुबह सवेरे दरिया से नहा कर आते वक़्त;  खुदा न खास्ता सामने से उन पर किसी मुस्लमान की परछाई पड़ जाती; तो वापस दरिया पर जाकर आती* जंगल से आने वाली जलाऊ लकडिया धोकर इस्तेमाल करती थी* घर में आने वाले राशन में से हल्दी नमक चावल लकड़ी  वगैरा में से कुछ अलग से बचाकर रख लेती थी* जो तंगहाली या बरसात में इस्तेमाल करती थीं*  बिना उनकी इजाजत रसोई में दादाजी पिताजी या चाचाजी भी नहीं जा सकते थे * 1948 की भागम भाग से पहले ही उनका इंतकाल हो चुका था* 
मेरी नानी कौशल्या देवी, दादा दुर्गादास जी , गुरादित्तामल जी, बृजलाल जी, व मेरे छोटे दादा नन्दलाल जी की सास सीतादेवी और जम्मू रहने वाले सुंदरदास जी, कांगड़ा रहने वले भगतराम व बंसीलाल ये सब मेरी दादी के ममेरे/मौसेरे/फुफेरे भाई बहन लगते थे, इन साहेबान की ज़बानों से ही मुझे अपनी दादी के किस्सों का इल्म हुआ* इनमे से अब कोई भी मौजूद नहीं है*
अब जब कभी कोई बुजुर्गवार गुस्सा में  कुछ कहता है, तो  यूँ लगता है; जैसे उनमे से ही कोई मुझे ज़िन्दगी का फलसफा समझा रहा हो* 


जय हिंद جیہینڈ  ਜੈਹਿੰਦ
       
   

रविवार, 23 अक्तूबर 2011

YAADEN (6) यादें (६)

पंडित ताराचंद जी ज्योतिष के विद्वान् थे, वे अक्सर (मेरे रिश्ते के दादा) दुर्गादास जी के घर आया जाया करते थे. सफ़ेद पगड़ी, कश्मीरी पट्टू का गोल गले का कोट और सफ़ेद अचकन, हुक्का गुडगुडाते हुए, उनकी पचास बरस पुरानी  धुंधली  छवि मेरे मन में बसी है. उनकी माता  श्रीमती  मंगलो देवी को हमारे सारे घरों में, माजी का दर्ज़ा प्राप्त था. किसी भी घर में कोई  ख़ुशी का कारज हो तो, माजी को उनकी चारपाई  समेत लाया जाता  था. सारे काम  उनकी आज्ञा से होते थे. पंडित ताराचंद जी की  दो लड़कियों में से एक आज्ञादेवी पहले से  ही जम्मू में शादीशुदा थी , दूसरी कमला की शादी 
4LC , जैतसर के निकट  नानुवाला आने  व् पंडित जी के देहांत के बाद हुई थी. माजी का देहांत काफी बाद में हुआ था.  पंडित जी के छोटे भतीजे  श्री सुरेश लाल शर्मा  इस समय हनुमानगढ़ के प्रख्यात  ज्योतिषविद  माने जाते हैं. उनके बड़े  भतीजे  स्वर्गीय  श्री ओम प्रकाश शर्मा मेरे पिताजी की शादी के दोस्त थे, इस नाते  मैं उनको चाचा  तथा   माजी को मैं परदादी का दर्जा देता था. ये सिलसिला आज  55 साल  बाद भी यथावत है. उनकी माता श्रीमती कुंती देवी का आज भी मेरे प्रति पौत्र वाला स्नेह है.
श्री ऑमप्रकाश जी रायसिंहनगर में दुकान करते थे, शनिवार शाम को आते और सोमवार सवेरे जाते थे हमारी दुकान के सामने से गुज़रते वक़्त मुझे अक्सर आवाज़ लगते - बेटे चलना है ? और मैं दौड़ कर साइकिल की की अगली गद्दी पर बैठ जाता था. फिर दो तीन दिन   रायसिंहनगर  दादीजी के पास रहकर ही वापस आता था. 
वर्तमान दूरदर्शन relay centre से लगभग पूर्व की तरफ चार पांच कच्चे घर   दक्षिण को खुले हुए  थे; जिनमे दादा दुर्गादास जी, ध्यानचंद जी, के अहाते भी शामिल थे. उसके लगभग दक्षिण पूर्व को दाने भूने वाली भाठीयारनें, जिनमे से एक अब भी वहीँ बस अड्डे से पंचायत समिति को जाने वाली मुख्य सड़क पर पूर्व दिशा को खुलती दुकान है. उस ज़माने में नगर पालिका उससे लगभग उत्तर की ओर थी , उसके साथ सड़क पर नई नई टूटियां और पशुओं को पानी पिलाने की लम्बी हौदी बनी थी, जिसमे गावों से मंडी आने वाले लोग अपने ऊंठों को पानी पिलाते थे. उसके पश्चिम में श्री राम नाट्य क्लब की रामलीला होती थी जो अब भी बरक़रार है. 
इस रामलीला का मुझ पर  गहरा प्रभाव है. 1980 तक तो लगभग रोज शाम को हम 10 -15 साथी पैदल 10 किलोमीटर जाते और रात लगभग 1-2 बजे रामलीला देखकर वापस पैदल आते, सुबह फिर उठकर बस्ता कंधे पर टांग कर पैदल 4 किलोमीटर  25NP पढने जाते 1966  से 1970  नवरात्रों में हमारी नियमित दिनचर्या ऐसी थी. रामलीला के दो संस्मरण हैं- संभवतया १९६३ की बात हो सकती है मैं माँ से बिछुड़ कर (वर्तमान हनुमान मंदिर) सड़क पर इधर उधर देखता हुआ रोने लगा, पता नहीं कहाँ से चाचा जी आये और मुझे उठा लिया. दूसरा १९६८-७० और संभवतया उसके बाद भी सरदारगढ़ (सूरतगढ़) से रात आठ वाली रेलगाड़ी से बाकर अली  और उसका एक सरदार मित्र रामलीला देखने आते थे और दोनों एक दुसरे के नाम पर रामलीला में पैसे देते  थे.  मंच से इन दोनों के नाम सुनना बहुत अच्छा लगता था.       

सोमवार, 17 अक्तूबर 2011

YAADEN (5) यादें (५)

कश्मीर के बारे में मैंने अपने बचपन के दिनों में अपने घर में रात को लालटेन की रौशनी में अपने माता पिता, रिश्तेदारों और दुसरे बुजुर्गों को अक्सर चर्चा करते सुना है. मुज़फराबाद के आस पास सराय, चट्ठा, मीरपुर, हटिया, चकोठी, उडी, बागां, पलन्दरी  आदि स्थानों  में हमारे लोग रहते थे. १९४७ की आज़ादी के समय महाराजा हरिसिंह ने स्वतंत्र राज्य के रूप में रहने का फैसला किया. जवाहर लाल नेहरु महाराजा से बात करने गया, तो महाराजा ने नेहरु को अपने राज्य में घुसने नहीं दिया. नेहरु जी को कठुआ से वापस दिल्ली आना पड़ा. अगस्त १९४८ के आस पास पाकिस्तान ने अफगान कबाइलियों से कश्मीर में घुसपेंठ करवानी शुरू की. शेख मोहम्मद अब्दुला उस समय कश्मीर के प्रधान मंत्री थे. महाराजा ने भारत सरकार से मदद मांगी, तथा कश्मीर का भारत में विलय का प्रस्ताव दिया. गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने विलय का मसौदा तैयार करवाया. इसी बीच कबैलियो के हमले तेज हो गए और महाराजा ने राज्य का सञ्चालन शेख अब्दुल्ला व् उनके बहनोई गुलाम मोहम्मद को सौंप दिया, और खुद बम्बई चला गया. अक्तूबर १९४८ में कश्मीर लावारिस स्थिति में आ गया था. जवाहरलाल कश्मीर की मदद नहीं करना चाहते थे. शेख अब्दुल्ला और गुलाम मोहम्मद कबाइलियों को शाह और मात के तरीके से उलझाये रहे. कबाइलियों ने क्वाला और किशन गंगा के पुल काट दिए थे. सरदार पटेल ने अपनी शक्तियों का उपयोग करते हुए महाराजा पटियाला की सेनाओं को हवाई छतरियों से मुज़फराबाद के इलाके में उतारा. पटियाला की सेनाओं के आ जाने से गुरिल्ला छापे बंद होकर सीधी लड़ाई शुरू हो गई थी, उस समय कश्मीरियों ने पटियाला के सैनिको का भरपूर स्वागत और सहयोग किया. यहाँ तक कि काजू अखरोट वाली रोटियां घारों से बना कर पहुंचाई जाती थीं.    कबाइली पीछे हटने लगे तो पाकिस्तान ने मोर्चा खोल दिया भारतीय सेना ने सारे हालात को अपने काबू में कर लिया था कबाइली और पाकिस्तानी सेना पीछे हट रही थी.
उस समय नेहरु ने सरदार पटेल के साथ अपने मतभेदों और महाराजा हरीसिंह से बदला चुकाने के लिए ३ बड़ी गलतियाँ  कीं-
१- युद्ध विराम                                                   
२- यथा स्थिति अर्थात LINE  OF  CONTROL
३- संयुक्त राष्ट्र की निगरानी                            
जवाहरलाल नेहरु की जिद को आज भी राष्ट्र भुगत रहा है. सबसे ज्यादा पीड़ित हैं १९४८ में बेघर हुए हिन्दू कश्मीरियों के ५०० परिवार
और हमने करेले को नीम पर चढ़ा कर संविधान में अनुच्छेद ३७० रख दी भारत का कानून तब तक जम्मू कश्मीर में लागु नहीं होगा जब वहां की विधान सभा उसे मंज़ूर न कर ले? इसी का परिणाम है की जम्मू कश्मीर विधान सभा में अफज़ल के बारे में प्रस्ताव पेश होने जा रहा है. और कश्मीरी हिन्दू ६४ साल से तड़प रहे हैं. क्या भारत सरकार आज हमें वापस मुज़फराबाद के अपने मूल घरों में बसाने की हिम्मत रखती है ?  
जय हिंद جیہینڈ     ਜੈਹਿੰਦ
http://www.apnykhunja.blogspot.com/;

रविवार, 9 अक्तूबर 2011

YAADEN (4)यादें (४)

 जम्मू कश्मीर सरकार ने प्रत्येक परिवार को ३५००/- रूपए पुनर्वास सहायता के रूप में देने की घोषणा की थी.  हमारे लोग  इसे क्लेम मानते रहे. इस रक़म को लेने के लिए भी  बहुत जोर आया. जल्लंधर में इसका केंद्रीय  भुगतान कार्यालय था. प्रत्येक परिवार के अलग कागज़ कभी जालंधर से और कभी जम्मू से अंग्रेजी में लिखा पढ़ी करनी पड़ती थी; जो काफी मुश्किल  काम था.   लगभग १००० या १२०० रुपये १९५२ में क़र्ज़ के रूप में दिए थे जो बाद में १९६४-६५ जब क्लेम मंज़ूर होने शुरू हुए तो  ब्याज समेत लगभग १५००-१८०० बन गए थे. उस समय भी एक मुश्त भुगतान नहीं दिया २०००/ में से क़र्ज़ व् ब्याज काटकर नकद दिए. बाकी  १५००/- रुपये के पांच साला बांड  दिए. 
कई बार ये अफवाहे आई कि क्लेम राशी ३५००/- से बढ़ा कर ३५०००/- की जा रही है.
१९४८-५२ के कश्मीरी हिन्दू शर्णार्थियो का सबसे बड़े दुर्भाग्य ये है कि कश्मीर का वो भू भाग जहाँ हमारे पूर्वज रहते थे; भारतीय संविधान के मुताबिक आज भी भारत में माना जाता है. और  संविधान लागु होने से आजतक उस क्षेत्र के लोक सभा सदस्यों के पद रिक्त रहते आये हैं. इसीलिए भारत सरकार ने न तो हमें शरणार्थी माना,  न ही पीछे छूटी सम्पतियो का कोई मुआवजा दिया. भारत सरकार कहती है, आप १९४८ से पहले भी भारत में थे; आज भी भारत में हो, इसलिए पाकिस्तान के विस्थापितों से तुलना मत करो. 
 व्यावहारिक धरातल का कटु सत्य है कि पाकिस्तान ने उसे अलग राज्य का दर्ज़ा देकर मुज़फराबाद को उसकी राजधानी बना रखा है. यह सब जवाहर लाल नेहरु की गलत नीतियों और महाराजा हरीसिंह तथा गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल के साथ मनमुटाव का परिणाम है.

जय हिंद جیہینڈ
जय हिंद جیہینڈ

रविवार, 2 अक्तूबर 2011

YAADEN (3) यादें (३)

मेरे दादाजी किसी चक 36NP में  पुराने भट्ठे की खाली  को अलाट करवाना चाहते थे. इसी कारण वे अक्सर 6 मील दूर रायसिंह नगर कचहरी में पैदल आते जाते रहते थे. उस ज़माने में काली पीली भयंकर आंधियां चलती थी, टीलों भरा रास्ता था और पानी साथ लेकर जाना पड़ता था. ये हालात लगभग 1970 तक ऐसे ही रहे, हालाँकि बाद में १९६५ के आस पास 12TK व् सुनारों वाली ढाणी 28NP में जनसहयोग से डिग्गियां बन गई थीं.  1970 में रायसिंह नगर से श्रीबिजयनगर पक्की सड़क बनी, उस समय मैं 25NP में आठवीं में पढ़ता था.  
1954 की गर्मियों में मेरे दादाजी रायसिंहनगर कचहरी से वापस गाँव आ रहे थे. ठाकरी के पास ज़बरदस्त आंधी और प्यास से बेहाल होकर, एक खेजड़ी के नीचे बेहोश हो गए; समाचार मिलने पर मेरे पिता चाचा व् दूसरे  लोग पानी व् चारपाई लेकर गए, और उस दिन उनका देहांत हो गया. उसके बाद मेरे माता पिता की शादी हुई. मेरे जन्म के समय मेरे छोटे दादा नन्दलाल जी बीमार थे, वे किसी शुभ मुहूर्त में मुझे देखना चाहते थे. किन्तु इसी दरम्यान वे अपने पौत्र  का मुंह देखे बिना ही विदा हो गए.   मेरी माता अक्सर इस घटना क्रम का ज़िक्र करती रहती थीं.
  ਜੈਹਿੰਦ    جیہینڈ   जय हिंद