रविवार, 23 अक्तूबर 2011

YAADEN (6) यादें (६)

पंडित ताराचंद जी ज्योतिष के विद्वान् थे, वे अक्सर (मेरे रिश्ते के दादा) दुर्गादास जी के घर आया जाया करते थे. सफ़ेद पगड़ी, कश्मीरी पट्टू का गोल गले का कोट और सफ़ेद अचकन, हुक्का गुडगुडाते हुए, उनकी पचास बरस पुरानी  धुंधली  छवि मेरे मन में बसी है. उनकी माता  श्रीमती  मंगलो देवी को हमारे सारे घरों में, माजी का दर्ज़ा प्राप्त था. किसी भी घर में कोई  ख़ुशी का कारज हो तो, माजी को उनकी चारपाई  समेत लाया जाता  था. सारे काम  उनकी आज्ञा से होते थे. पंडित ताराचंद जी की  दो लड़कियों में से एक आज्ञादेवी पहले से  ही जम्मू में शादीशुदा थी , दूसरी कमला की शादी 
4LC , जैतसर के निकट  नानुवाला आने  व् पंडित जी के देहांत के बाद हुई थी. माजी का देहांत काफी बाद में हुआ था.  पंडित जी के छोटे भतीजे  श्री सुरेश लाल शर्मा  इस समय हनुमानगढ़ के प्रख्यात  ज्योतिषविद  माने जाते हैं. उनके बड़े  भतीजे  स्वर्गीय  श्री ओम प्रकाश शर्मा मेरे पिताजी की शादी के दोस्त थे, इस नाते  मैं उनको चाचा  तथा   माजी को मैं परदादी का दर्जा देता था. ये सिलसिला आज  55 साल  बाद भी यथावत है. उनकी माता श्रीमती कुंती देवी का आज भी मेरे प्रति पौत्र वाला स्नेह है.
श्री ऑमप्रकाश जी रायसिंहनगर में दुकान करते थे, शनिवार शाम को आते और सोमवार सवेरे जाते थे हमारी दुकान के सामने से गुज़रते वक़्त मुझे अक्सर आवाज़ लगते - बेटे चलना है ? और मैं दौड़ कर साइकिल की की अगली गद्दी पर बैठ जाता था. फिर दो तीन दिन   रायसिंहनगर  दादीजी के पास रहकर ही वापस आता था. 
वर्तमान दूरदर्शन relay centre से लगभग पूर्व की तरफ चार पांच कच्चे घर   दक्षिण को खुले हुए  थे; जिनमे दादा दुर्गादास जी, ध्यानचंद जी, के अहाते भी शामिल थे. उसके लगभग दक्षिण पूर्व को दाने भूने वाली भाठीयारनें, जिनमे से एक अब भी वहीँ बस अड्डे से पंचायत समिति को जाने वाली मुख्य सड़क पर पूर्व दिशा को खुलती दुकान है. उस ज़माने में नगर पालिका उससे लगभग उत्तर की ओर थी , उसके साथ सड़क पर नई नई टूटियां और पशुओं को पानी पिलाने की लम्बी हौदी बनी थी, जिसमे गावों से मंडी आने वाले लोग अपने ऊंठों को पानी पिलाते थे. उसके पश्चिम में श्री राम नाट्य क्लब की रामलीला होती थी जो अब भी बरक़रार है. 
इस रामलीला का मुझ पर  गहरा प्रभाव है. 1980 तक तो लगभग रोज शाम को हम 10 -15 साथी पैदल 10 किलोमीटर जाते और रात लगभग 1-2 बजे रामलीला देखकर वापस पैदल आते, सुबह फिर उठकर बस्ता कंधे पर टांग कर पैदल 4 किलोमीटर  25NP पढने जाते 1966  से 1970  नवरात्रों में हमारी नियमित दिनचर्या ऐसी थी. रामलीला के दो संस्मरण हैं- संभवतया १९६३ की बात हो सकती है मैं माँ से बिछुड़ कर (वर्तमान हनुमान मंदिर) सड़क पर इधर उधर देखता हुआ रोने लगा, पता नहीं कहाँ से चाचा जी आये और मुझे उठा लिया. दूसरा १९६८-७० और संभवतया उसके बाद भी सरदारगढ़ (सूरतगढ़) से रात आठ वाली रेलगाड़ी से बाकर अली  और उसका एक सरदार मित्र रामलीला देखने आते थे और दोनों एक दुसरे के नाम पर रामलीला में पैसे देते  थे.  मंच से इन दोनों के नाम सुनना बहुत अच्छा लगता था.       

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